डगर कोई खोजे,
मेरे तलवों में छाले पड़े हैं।
थक गया हूँ मैं,
बस पैर संभाले खड़े हैं
दिखी है एक दुर्बल
लाचार सी बुढ़िया
दिखी है वो रस्ते में
दुहाई ऊपरवाले की देती
दिखी है एक माँ भी
और दिखा एक बच्चा
दिखें हैं वो भी बद
बेबस राहों में फिरते
दिखे हैं हाड मास के
चलते फिरते लम्बरदार
दिखे हैं उनको
नज़रबंद करते ठेकेदार
दिखा है ख़रीददारी पर
खड़ा एक मज़हब
दिखा है गरीबी पर
लाचार एक मज़हब
दिखा है व्यापार
जिसमें बिचता है धर्म
दिखी है लूट
जिसमें धूमिल है धर्म।
मस्जिद दिखी है,
शिवाले दिखे हैं,
रेशम की चादर
चाँदी के थाल दिखे हैं।
न दिखे कोई अल्लाह,
भगवान छिपे हुए हैं,
मोमबत्ती की रौशनी में,
ईशु भी गायब हुए हैं।
धर्म दिखा है,
सिपाही दिखे हैं,
ग्रंथ दिखे हैं,
अंधे राही दिखे हैं।
काज़ी दिखे हैं
फ़तवे दिखे हैं
योगी दिखे हैं
कि नेता दिखे हैं
मैं देखूं सबको और सोचूँ यही,
पूछूँ या नहीं ,सवाल ‘वही’..
पर अब मेरे तलवों में छाले पड़े हैं थका हूँ,बस पैर संभाले खड़े हैं।